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व्योम के पार
कविता की पाठशाला
Thursday, February 15, 2024
मैं तो ग़ज़ल सुना के
मैं तो ग़ज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा
सब अपने अपने चाहने वालों में खो गए
-कृष्ण बिहारी नूर
मिरी जगह
मिरी जगह कोई आईना रख लिया होता
न जाने तेरे तमाशे में मेरा काम है क्या
-ज़ेब ग़ौरी
बरसों के रत-जगों
बरसों के रत-जगों की थकन खा गई मुझे
सूरज निकल रहा था कि नींद आ गई मुझे
-क़ैसर-उल जाफ़री
[1926 - 2005]
बरगद की शाख़
बरगद की शाख़ तोड़ दी आँधी ने पिछली रात
इस वास्ते तो गाँव का बूढ़ा उदास है
-इमरान राहिब
फूल किलते
फूल खिलते रहेंगे दुनिया में
रोज़ निकलेगी बात फूलों की
-मख़दूम मुहिउद्दीन
न जाने वक़्त
न जाने वक़्त की रफ़्तार क्या दिखाती है
कभी कभी तो बड़ा ख़ौफ़ सा लगे है मुझे
-जाँ निसार अख़्तर
दुनिया भर की
दुनिया भर की राम-कहानी किस किस ढंग से कह डाली
अपनी कहने जब बैठे तो एक एक लफ़्ज़ पिघलता था
-ख़लील-उर-रहमान आज़मी
दुनिया भर की
दुनिया भर की यादें हम से मिलने आती हैं
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है
-क़ैसर-उल जाफ़री
तुम्हारे शहर का
तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे
-क़ैसर-उल जाफ़री
तुम से पहले
तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था
उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था
-हबीब जालिब
तमन्नाओं में
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
खिलौने दे के बहलाया गया हूँ
-शाद अज़ीमाबादी
Wednesday, February 14, 2024
'ज़ौक़' जो मदरसे
'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उन को मय-ख़ाने में ले आओ सँवर जाएँगे
-शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
जब तुझे याद
जब तुझे याद कर लिया सुब्ह महक महक उठी
जब तिरा ग़म जगा लिया रात मचल मचल गई
-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
क्या हुस्न ने
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है
-जिगर मुरादाबादी
कौन हमारे
कौन हमारे दर्द को समझा किस ने ग़म में साथ दिया
कहने को तो साथ हमारे तुम क्या एक ज़माना था
-इमदाद निज़ामी
कुछ कहने का
कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो
ऐ लोगो ख़ामोश रहो हाँ ऐ लोगो ख़ामोश रहो
-इब्न-ए-इंशा
ऐ दिल की ख़लिश
ऐ दिल की ख़लिश चल यूँ ही सही चलता तो हूँ उन की महफ़िल में
उस वक़्त मुझे चौंका देना जब रंग पे महफ़िल आ जाए
-बहज़ाद लखनवी
ऐ ख़ाक-नशीनो
ऐ ख़ाक-नशीनो उठ बैठो वो वक़्त क़रीब आ पहुँचा है
जब तख़्त गिराए जाएँगे जब ताज उछाले जाएँगे
-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
इशरत-ए-क़तरा
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
-मिर्ज़ा ग़ालिब
इतना सन्नाटा है
इतना सन्नाटा है बस्ती में कि डर जाएगा
चाँद निकला भी तो चुप-चाप गुज़र जाएगा
-क़ैसर-उल जाफ़री
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