ग़ज़लों के चुनिंदा शेर
कविता की पाठशाला
नवगीत की पाठशाला
नवगीत संग्रह और समीक्षा
लोक संस्कृति
हिंदी की सौ सर्वश्रेष्ठ प्रेम कविताएँ
link
व्योम के पार
कविता की पाठशाला
Wednesday, February 14, 2024
'इंशा' जी उठो
'इंशा' जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या
वहशी को सुकूँ से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या
-इब्न-ए-इंशा
अब टूट गिरेंगी
अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें अब ज़िंदानों की ख़ैर नहीं
जो दरिया झूम के उट्ठे हैं तिनकों से न टाले जाएँगे
-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
अब गुल से नज़र
अब गुल से नज़र मिलती ही नहीं अब दिल की कली खिलती ही नहीं
ऐ फ़स्ल-ए-बहाराँ रुख़्सत हो हम लुत्फ़-ए-बहाराँ भूल गए
-असरार-उल-हक़ ‘मजाज़ लखनवी’
दरिया को अपनी
दरिया को अपनी मौज की तुग़ियानियों से काम
किश्ती किसी की पार हो या दरमियां रहे
-मौलाना अल्ताफ़ हुसैन 'हाली'
[1837 - 1914]
Wednesday, January 24, 2024
होता चला आया
होता चला आया है बे-दर्द ज़माने में
सच्चाई की राहों में काँटे सभी बोते हैं
-
हसरत जयपुरी
लौट आते हैं
लौट आते हैं कदम रूठ के जाने वाले
माँ की आवाज़ जादू की छड़ी होती है
-जावेद अकरम फारूक़ी
दौलत, इज्जत
दौलत, इज्जत, शोहरत, अजमत सब कुछ चाट लिया दीमक ने
प्यार अमर था, प्यार अमर है, हारी दुनिया, जीता रिश्ता
-जावेद अकरम फारूक़ी
एक से दुःख-सुख
एक से दुःख-सुख, एक सी पूजा, एक दुआ
प्यार का सच्चा मज़हब अच्छा लगता है
-जावेद अकरम फारूक़ी
छीना था यह
छीना था यह वतन कभी हमने उन श्वेत भेड़ियों से
मगर आज चप्पे-चप्पे पर ही साँपों का डेरा है
-गंगाभक़्त सिंह ‘भक़्त’
जिसको नहीं
जिसको नहीं लगाव देश से ना भाषा की चिन्ता है
उसके मरने को चुल्लूभर पानी 'भक्त' घनेरा है
-गंगाभक़्त सिंह ‘भक़्त’
बढ़ते जाते
बढ़ते जाते टैक्स दनादन जनता भूखों मरती है
रिश्वत का बाज़ार गरम अब बिल्कुल खुल्लमखुला है
-गंगाभक़्त सिंह ‘भक़्त’
वह वक़्त का
वह वक़्त का जहाज़ था करता लिहाज़ क्या
मैं दोस्तों से हाथ मिलाने में रह गया
-हफीज मेरठी
फिर हाथ मिलायेंगे
फिर हाथ मिलायेंगे तो शर्मिन्दगी होगी
ये सोच के रिश्तों की इबादत नहीं छोड़ी
-जावेद अकरम फारूक़ी
[ जावेद अकरम फारूक़ी, 01-06-1960, फतेहगढ़, फर्रुखाबाद, उ.प्र.]
Monday, January 22, 2024
उन्हीं को चीर के
उन्हीं को चीर के बढ़ना है अब किनारे पर
उतर गए हैं तो लहरों से ख़ौफ़ खाना क्या
-आलोक मिश्रा
हमारे दिल में
हमारे दिल में छुपकर बैठ जाते हैं कई मौसम
सफर के वास्ते हम जब कभी तैयार होते हैं
-आलोक यादव
ये खुश्क पत्ते
ये खुश्क पत्ते कहाँ से आए
अभी तो मौसम बहार का था
-पी.पी. श्रीवास्तव रिंद
तेरी ज़मीं की
तेरी ज़मीं की ख़ाक में मिल कर चले गए
जाने यहाँ से कितने सिकंदर चले गए
-मशकूर ममनून कन्नौजी
राम के राज की
राम के राज की तस्वीर थी अपनी धरती
मसलक-ए-फ़िक्र-ओ-अमल उन्स-ओ-वफ़ा था पहले
-मौज फतेहगढ़ी
ये लगता है
ये लगता है तरक़्क़ी कर रहे हैं
गिरावट रोज़ बढ़ती जा रही है
-मौज फतेहगढ़ी
किसी को घर से
किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल
कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा
-अहमद फ़राज़
Newer Posts
Older Posts
Home
Subscribe to:
Posts (Atom)